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Wednesday, 13 April 2016

♥ क्यूं समझा जाता है बेशकीमती कोहिनूर हीरे को अभिशप्त ♥




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'' Haribhumi ''

कोहिनूर का अर्थ होता है रोशनी का पहाड़ लेकिन इस हीरे की चमक से कई सल्तनत के राजाओ का सूर्ये अस्त हो गया। ऐसी मान्यता है की यह हीरा अभिशप्त है और यह मान्यता अब से नहीं 13 वीं शताब्दी से है। 

पौराणिक मान्यता

इस हीरे को पहचान 1306 में मिली जब इसको पहनने वाले एक शख्स ने लिखा की जो भी इंसान इस हीरे को पहनेगा वो इस संसार पर राज करेगा पर इसकी के साथ उसका दुर्भाग्य शुरू हो जाएगा। हालांकि तब उसकी बात को उसका वहम कह कर खारिज कर दिया गया पर यदि हम तब से लेकर अब तक का इतिहास देखे तो कह सकते है की यह बात काफी हद तक सही है। वेबदुनिया के अनुसार कई साम्राज्यों ने इस हीरे को अपने पास रखा लेकिन जिसने भी रखा वह कभी भी खुशहाल नहीं रह पाया। 

 
कई वंशों के पतन का कारण कोहिनूर

 
14 वीं शताब्दी की शुरुआत में यह हीरा काकतीय वंश के पास आया और इसी के साथ 1083 ई. से शासन कर रहे काकतीोय वंश के बुरे दिन शुरू हो गए और 1323 में तुगलक शाह प्रथम से लड़ाई में हार के साथ काकतीय वंश समाप्त हो गया। काकतीय साम्राज्य के पतन के पश्चात यह हीरा 1325 से 1351 ई. तक मोहम्मद बिन तुगलक के पास रहा और 16वीं शताब्दी के मध्य तक यह विभिन्न मुगल सल्तनत के पास रहा और सभी का अंत इतना बुरा हुआ जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।

शाहजहां ने इस कोहिनूर हीरे को अपने मयूर सिंहासन में जड़वाया लेकिन उनका आलीशान और बहुचर्चित शासन उनके बेटे औरंगजेब के हाथ चला गया। उनकी पसंदीदा पत्नी मुमताज का इंतकाल हो गया और उनके बेटे ने उन्हें उनके अपने महल में ही नजरबंद कर दिया।

1739 में फारसी शासक नादिर शाह भारत आया और उसने मुगल सल्तनत पर आक्रमण कर दिया। इस तरह मुगल सल्तनत का पतन हो गया और नादिर शाह  अपने साथ तख्ते ताउस और कोहिनूर हीरों को पर्शिया ले गया।

मुगलों को पराजित करके नादिर शाह कोहिनूर अपने साथ फारस ले गया। नादिर शाह ने ही इस हीरे को 'कोह-ए-नूर' नाम दिया। इससे पहले इसे अन्य नामों से जाना जाता था। धीरे धीरे इसका नाम थोड़ा और बदला और इसे कोहिनूर के नाम से जाना जाने लगा।

उसने इस हीरे का नाम कोहिनूर रखा। 1747 ई. में नादिरशाह की हत्या हो गयी और कोहिनूर हीरा अफ़गानिस्तान शांहशाह अहमद शाह दुर्रानी के पास पहुंच गया।

1813  ई.  में, अफ़गानिस्तान के अपदस्त शांहशाह शाह शूजा कोहीनूर हीरे के साथ भाग कर लाहौर पहुंचा। उसने  कोहिनूर हीरे को पंजाब के राजा रंजीत सिंह को दिया एवं इसके एवज में राजा रंजीत सिंह ने,  शाह शूजा को अफ़गानिस्तान का राज-सिंहासन वापस दिलवाया। इस प्रकार कोहिनूर हीरा वापस भारत आया। लेकिन कहानी यही खत्म नहीं होती है कोहिनूर हीरा आने  कुछ सालो बाद महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु हो जाती है और अंग्रेज सिख साम्राज्य को अपने अधीन कर लेते है। इसी के साथ यह हीरा ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा हो जाता है।

शापित हीरे के शाप के प्रभाव से बचने के लिए इंग्लैंड की महारानी ने यह वसीयत बनाई कि इसे महिला ही धारण करेगी। लेकिन ऐसा माना जाता है कि इससे भी कोहिनूर का शाप दूर नहीं हुआ और दुनिया भर में फैले अंग्रेजों के साम्राज्य का अंत हो गया। प्राचीन इतिहास में भी कोहिनूर का जिक्र मिलता है। हालांकि, इस बात की प्रामाणिकता सिद्ध करना संभव नहीं है लेकिन कोहिनूर का पहला उल्‍लेख 3000 साल पहले मिला था और इसका सीधा संबंध श्री कृष्‍ण काल से बताया जाता है। पुराणों के अनुसार इस हिरे को पहले स्‍वयंतक मणि के नाम से जाना जाता था। दरअसल, यह मणि पहले सूर्य के पास थी लेकिन उन्होंने बाद में इसे कर्ण को दे दिया था। कर्ण के बाद यह मणि अर्जुन और फिर युधिष्ठिर के पास पहुंची। इस हीरे ने एक लंबा सफर तय किया और फिर सम्राट अशोक के पास पहुंचा। अशोक के बाद इसे महाराजा हर्ष और चन्‍द्रगुप्‍त ने अपनाया। उसके बाद सन् 1306 में यह मणि सबसे पहले मालवा के महाराजा रामदेव के पास देखी गई और फिर वही पुराना इतिहास एक बार फिर से अपने कालक्रम में आ गया।



तो क्या सच में दिलीप सिंह ने एलिजाबेथ को भेंट किया था कोहिनूर !!

एक अन्य दावे के मुताबिक रणजीत सिंह ने खुद को पंजाब का महाराजा घोषित किया था। 1839 में अपनी मौत से पहले उन्होंने एक वसीयतनामा लिखवाया था जिसमें उन्होंने कोहिनूर हीरे का जिक्र किया था। इस वसियतनामे के मुताबिक कोहिनूर को उड़ीसा के पुरी में स्थित प्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर को दान दिया जाना था लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वसीयत के अंतिम शब्दों के बारे में विवाद उठा और अन्ततः वह पूरा ना हो सके। 29 मार्च 1849 को लाहौर के किले पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया जिसके बाद पंजाब को ब्रिटिश भारत का राज्य घोषित कर दिया गया। इस दौरान एक महत्वपूर्ण संधि पर हस्ताक्षर हुए जिसमें, 'कोह-इ-नूर नामक रत्न, जो शाह-शूजा-उल-मुल्क से महाराजा रणजीत सिंह द्वारा लिया गया था, लाहौर के महाराजा द्वारा इंग्लैण्ड की महारानी को सौंपा जायेगा।' इस संधि के प्रभारी गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी थी जो पहले से ही कोहिनूर को पाना चाहते थे। इस संधि में उन्होंने अपनी इस इच्छा को भी शामिल कर लिया। उनकी इस इच्छा की बाद के इतिहासकारों ने आलोचना भी की है।संधि के बाद डलहौजी ने 1851 में महाराजा रणजीत सिंह के उत्तराधिकारी दिलीप सिंह द्वारा महारानी विक्टोरिया को कोहिनूर को भेंट किये जाने के प्रबंध किया। उस वक्त दिलीप सिंह की आयु महज तेरह साल थी। इसके लिए दिलीप सिंह को इंग्लैंड की यात्रा पर भेजा गया जहां उन्होंने कोहिनूर हीरा ब्रिटेन की महारानी को भेंट कर दिया था।

कोहिनूर हीरे को ब्रिटेन ले जाकर महारानी विक्टोरिया को सौप दिया जाता है तथा उसके शापित होने की बात बताई जाती है। महारानी के बात समझ में आती है और वो हीरे को ताज में जड़वा के 1852 में स्वयं पहनती है तथा यह वसीयत करती है की इस ताज को सदैव महिला ही पहनेगी। यदि कोई पुरुष ब्रिटेन का राजा बनता है तो यह ताज उसकी जगह उसकी पत्नी पहनेगी।

कई इतिहासकारों का मानना है की महिला के द्वारा धारण करने के बावजूद भी इसका असर ख़त्म नहीं हुआ और ब्रिटेन के साम्राज्य के अंत के लिए भी यही ज़िम्मेदार है। ब्रिटेन 1850 तक आधे विशव पर राज कर रहा था पर इसके बाद उसके अधीनस्थ देश एक एक करके स्वतंत्र हो गए।


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