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Saturday, 19 July 2014

♥ सुदर्शन चक्र ♥

कहते हैं कि सुदर्शन चक्र एक ऐसा अचूक अस्त्र
था कि जिसे छोड़ने के बाद यह लक्ष्य का पीछा करता था और उसका काम तमाम करके वापस छोड़े गए स्थान पर आ जाता था। चक्र को विष्णु की तर्जनी अंगुली में घूमते हुए बताया जाता है। सबसे पहले यह चक्र उन्हीं के पास था। सिर्फ देवताओं के पास
ही चक्र होते थे। चक्र सिर्फ उस मानव को ही प्राप्त होता था जिसे देवता लोग नियुक्त करते थे।

पुराणों के अनुसार विभिन्न देवताओं के पास अपने-अपने चक्र हुआ करते थे। सभी चक्रों की अलग-अलग क्षमता होती थी और सभी के चक्रों के नाम भी होते थे। महाभारत युद्ध में भगवान कृष्ण के पास सुदर्शन चक्र था।

चक्र को छोटा, लेकिन सबसे अचूक अस्त्र माना जाता था। सभी देवी-देवताओं के पास अपने-अपने अलग-अलग चक्र होते थे। उन सभी के अलग-अलग नाम थे। शंकरजी के चक्र का नाम भवरेंदु, विष्णुजी के चक्र का नाम कांता चक्र और देवी का चक्र मृत्यु मंजरी के नाम से जाना जाता था। सुदर्शन चक्र का नाम भगवान कृष्ण के नाम के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है।

सुदर्शन चक्र, ब्रह्मास्त्र के समान ही अचूक था। हालांकि यह ब्रह्मास्त्र की तरह विध्वंसक नहीं था लेकिन इसका प्रयोग अतिआवश्यक होने पर ही किया जाता रहा है, क्योंकि एक बार छोड़े जाने पर यह दुश्मन को खत्म करके ही दम लेता था।

इस आयुध की खासियत थी कि इसे तेजी से हाथ से घुमाने पर यह हवा के प्रवाह से मिलकर प्रचंड वेग से अग्नि प्रज्वलित कर दुश्मन को भस्म कर देता था। यह अत्यंत सुंदर, तीव्रगामी, तुरंत संचालित होने
वाला एक भयानक अस्त्र था।

परमाणु बम के समान ही सुदर्शन चक्र के विज्ञान को भी अत्यंत गुप्त रखा गया है। गोपनीयता इसलिए रखी गई होगी कि इस अमोघ अस्त्र की जानकारी देवताओं को छोड़ दूसरों को न लग जाए अन्यथा अयोग्य और
गैरजिम्मेदार लोगों द्वारा इसका दुरुपयोग हो सकता था।

यह चांदी की शलाकाओं से निर्मित था। इसकी ऊपरी और निचली सतहों पर लौह शूल लगे हुए थे। इसके साथ ही इसमें अत्यंत विषैले किस्म के विष थे जिसे
द्विमुखी पैनी छुरियों में रखा जाता था। इन पैनी छुरियों का भी उपयोग किया जाता था। इसके नाम से ही विपक्षी सेना में मौत का भय छा जाता था।

यह खुद जितना रहस्यमय है उतना ही इसका निर्माण और संचालन भी। प्राचीन और प्रामाणिक शास्त्रों के अनुसार इसका निर्माण भगवान शंकर ने किया था। निर्माण के बाद भगवान शिव ने इसे श्रीविष्णु को सौंप दिया था। जरूरत पड़ने पर श्रीविष्णु ने इसे देवी पार्वती को प्रदान कर दिया।

भगवान श्रीकृष्ण के पास यह देवी की कृपा से आया। एक मान्यता है कि भगवान कृष्ण को यह सुदर्शन चक्र
परशुराम से मिला था।

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